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अच्छी बाते- अच्छी खबरों को जरूर देखे

Our Industrial Policy
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इन्टरनेट में हर किस्म का खज़ाना भरा पड़ा है, आईये
सफल और संतुष्ट जीवन के तीन तप के बारे में भी पढ़े.

मित्रों,आज के इस भौतिकवादी युग में धन, सुख, समृद्धि, यश, प्रतिष्ठा,अच्छा परिवार और ओहदा होने के बावजूद भी न जाने क्यों अधिकांश लोगों के चेहरे प्रफुल्लित एवं प्रसन्न नहीं दिखाई देते |एक खिंचाव और तनाव सा बना रहता है |थोड़ी सी भी प्रतिकूलता असहनीय हो जाती है और मन अत्यधिक चिंतित और तन शिथिल होने लगता है |एक असमंजस के शिकार होते देर नहीं लगती |न जाने क्यों हम भूल जाते हैं कि ‘‘ मन के जीते जीत है और मन के हारे हार |’’दरअसल,जीवन का हर क्षण एक दैवी आनंद ,स्फूर्ति और प्रेरणा से भरपूर हुआ करता है, शायद हम उसे ही जीना चाहते हैं |सच मानिए, हम उस आनंदमय जीवन के ही अधिकारी हैं|बस,अपने कर्तव्यकर्म के पथ पर चलते हुए हमें तपस्वी बनना होगा ,यही आदेश है उन करुणासागर,महान् पथप्रदर्शक एवं योगेश्वर भगवान् श्री कृष्ण का जिन्होंने मोहग्रस्त अर्जुन को कर्तव्याभिमुख करने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश देते हुए कहा था कि सफल और संतुष्ट जीवन जीने के लिए मानव को तीन तप करते रहना होगा |वे तीन तप हैं-शारीरिक, वाङ्मय अर्थात् वाणी का तथा मानसिक तप |

वस्तुतः, तपाचरण का अर्थ मात्र शारीरिक उत्पीड़न नहीं होता अपितु इसका प्रयोजन तो अपनी शक्तियों का संचय करके और फिर उन्हें रचनात्मक कार्यों में प्रयोग करके, आत्मविकास एवं आत्मसाक्षात्कार करना होता है |अपने नैतिक-विकास के लिए हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम अपने आराध्य आदर्श अथवा इष्ट या लक्ष्य के प्रति श्रद्धा,भक्ति, आदर एवं सम्मान का भाव रखें तथा जिन सत्पुरुषों ने इस आदर्श को प्रस्तुत किया उन विद्वानों, अत्मानुभवियों, उपदेष्टा गुरुओं तथा इस आदर्श के अनुमोदक ज्ञानीजनों के प्रति भी सदैव ह्रदय से कृतज्ञ रहें |दूसरे, हमें चाहिए कि शारीरिक स्वच्छता के साथ-साथ हम अपने व्यव्हार को भी सरल बनाने का यथासंभव प्रयास करते रहें क्योंकि हमारा कुटिल व्यवहार हमारे व्यक्तित्व को विभाजित करके हमारे मानसिक-संतुलन और शारीरिक सामर्थ्य के लिए खतरा बन सकता है |तीसरे, इन्द्रिय-नियंत्रण और अहिंसा में निष्ठा आदि को शारीरिक-तप की संज्ञा दी गयी है |

दरअसल, हमारे पास स्वयं को अभिव्यक्त करने का जो सबसे सशक्त माध्यम है, वह है हमारी एक कर्मेंद्रिय, हमारी ‘‘वाणी’’ जो हमारी बौद्धिक-पात्रता, मानसिक-शिष्टता तथा शारीरिक-सयंम की सूचक हुआ करती है |यही कारण है कि वाणी के सतत क्रियाशील रहने से हमारी शक्ति का सबसे अधिक अपव्यय होता है और इसके संयम से ही एक बड़ी मात्रा में अपनी शक्ति का संचय भी किया जा सकता है |लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम मौन रहकर आत्मनाश या फिर पर-उत्तेजन का कारण बनते रहें |वाक्शक्ति के सदुपयोग द्वारा हम अपने व्यक्तित्व को सुगठित कर सकते हैं इसलिए ज़रुरी है कि हम बोलते समय निर्भयतापूर्वक सावधान रहें ताकि हम जो बोलें वह सत्य ,प्रिय और हितकारी हो |सत्य वाणी हमारी शक्ति को व्यर्थ नष्ट होने से बचाती है |शब्दों की कटुता का मोल हमें कई बार अपने जीवन में या तो असफलता अथवा अपने मित्र-बंधुओं को खो कर चुकाना पड़ता है |निरर्थक-भाषण से तो हमें केवल थकान ही हुआ करती है |इस तरह सत्य, प्रिय और हितकारी वाणी द्वारा सुरक्षित की गयी अपनी शक्ति का सदुपयोग हम ज्ञानवर्धक-साहित्य का अध्ययन करने में, उसके अर्थ को ग्रहण करने में और यथासंभव अपने जीवन को बेहतर बनाने में कर सकते हैं |यही होता है वाणी का तप जिसके आधार पर एक साधक केवल श्रेष्ठतर आनंद की प्राप्ति ही नहीं करता बल्कि अपने वचनों से किसी निराश अथवा जीवन से हार मान चुके हुए व्यक्ति को फिर से जीवन के प्रति सकरात्मक बनाकर, सम्मान के साथ जीने की प्रेरणा देने जैसा पुण्य कर्म करने से कभी भी पीछे नहीं हटता |

तीसरा और अंतिम तप है ‘मानसिक-तप’ जिसके अंतर्गत आते हैं—मनःशांति, सौम्यत्व, मौन, आत्मसंयम एवं अन्तःकरण की पवित्रता |वस्तुतः,मन की शांति से बढ़कर इस संसार में कुछ है ही नहीं और जब इस दुनिया के साथ हमारा संबंध स्नेह, प्रेम, समझ, ज्ञान, क्षमा और सहिष्णुता जैसे स्वस्थ मूल्यों पर आधारित होता है, तब हमारा मन सदैव एक दिव्य शांति का आभास किया करता है |इसी शांत मन में सौम्यत्व का निवास होता है अर्थात् बिना मानसिक-शांति के मानव प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और कल्याण की भावना की अनुभूति नहीं कर सकता |यह सौम्यत्व ही तो होता है कि जो मनुष्य को जीवन की बड़ी से बड़ी चुनौती को भी स्वीकारने की हिम्मत दिया करता है एवं इस भावना का शिकार बनने से भी यथासंभव रोका करता है कि लोग ज़बरदस्ती उसे पीड़ित करते हैं |नकारात्मकता से अप्रभावित मन वाला मनुष्य ही अपनी वाणी पर संयम रख पाता है जिसे सही अर्थों में मनःतप के सन्दर्भ में ‘मौन’ की संज्ञा दी जाती है |अब, जब हम विवेक और सजगतापूर्वक अपने आप को वश में रखते हैं तब यही आत्मसंयम हमें उन पवित्र विचारों और भावनाओं का पात्र बनाने लगता है जो हमें अपने उद्देश्यों की पवित्रता बनाये रखने में मदद करती हैं |यह भावसंशुद्धि हमें काफी हद तक इस संसार के प्रलोभनों से बचाती है जिसके कारण हम अपनी क्षमताओं का प्रयोग धैर्यपूर्वक अपने उद्देश की पूर्ति के लिए कर पाते हैं |

मित्रों, अंततः, मैं यही कहना चाहती हूँ कि श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित इस तप के आचरण द्वारा हम अपने जीवन में तनाव, चिंता, भय,असंतोष और अशांति से काफ़ी हद तक बचने के साथ-साथ,अप्रत्यक्ष रूप से बिना अपने कर्मों के लिए दूसरों पर दोषारोपण किए, प्रसन्नचित रहकर वर्तमान में जीने की कला में भी प्रवीण होने लगते है और इस तरह मनुष्य होने की तृप्ति का आभास ही हमारे चिंतन का केद्र बन जाता है |

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